एक सवाल ? तीन तलाक !
विवाह जो एक बहुत ही पवित्र रिश्ता माना जाता है ୲ विवाह हमारे समाज को आगे बढ़ता है , बिना विवाह किए किसी भी परिवार का वंश नही बढ़ सकता। परन्तु मुस्लिम समाज मे इसको खेल बना दिया है, जब मन करे शादी करो निकाह पढ़ो और जब मन भर जाए तो सब कुछ खत्म कर दो सिर्फ तीन लफ्जो को बोल कर ( तलाक तलाक तलाक )।
इस पुरुष प्रधान समाज मे क्यों महिलाओ को इतना निम्न स्तर पर आंका जाता है कि वो अपनी मर्जी से अपने शौहर के साथ मरते दम तक रहने का भी हक़ नही रखती। क्यों कोई धर्म गुरु इस बात पर फतवा नही जारी करता कि कोई भी पुरुष बिना उचित कारण दिए तीन तलाक नही बोल सकता। वैसे आये दिन फतवा जारी होता रहता है, लड़कियों ने छोटे कपड़े क्यों पहने, लड़कियों ने गाना कैसे गाया, घर से निकले तो चेहरा ढक कर निकले।
इन पुरुषो ने तो हमारे देश की गौरव (सानिया मिर्जा) को भी नही छोड़ा उनके खिलाफ भी बोलने से बाज़ नही आये की वो छोटे कपड़े क्यों पहनती है। मुस्लिम समाज मे लड़कियों की हर बात पर आपत्ति जताई जाती है, परंतु कोई भी पुरुष की इस बात पर आपत्ति नही जाता कि तीन तलाक बोलकर अपनी पत्नी को छोड़ नही सकता।
पुरुष हर रोज एक महिला के आत्म सम्मान पर आधात पहुचाता रहता है, परंतु मुस्लिम समाज इस बातपर चर्चा कभी नही करता। बस किसी भी छोटी सी बात पर तीन तलाक बोलकर उसे अकेला छोड़ सकते है। इस बात की इजाजत न ही कानून देता है, ना पवित्र कुरान औरन ही इस्लाम ! लेकिन फिर भी आजकल लोग फोन पर, मेल में, किसी समारोह में अपनी पत्नी को छोड़ने के लिए तीन तलाक बोलना भर ही उनके लिए काफी है और पति पत्नी का पाक रिश्ता उसी पल खत्म हो जाता है।
काश इस बात के लोए भी कोई फतवा जारी होता तो महिलाओ के लिए इससे बड़ा गौरव कोई हो ही नही सकता। तलाक लेना या तलाक देना कोई जुर्म नही है , यदि पति पत्नी आपसी सहमति से एक साथ सामंजस्य नही बिठा पा रहे तो वो खुशी खुशी दो गवाहों और न्यायिक प्रक्रिया के द्वारा तलाक ले सकते है।
पवित्र कुरान में भी ये साफ लिखा है कि हर एक तलाक के बीच एक महीने के अन्तर हो। ये भी जरूरी है, की पति पत्नी एकदूसरे को समझाए तलाक ना लेने के लिए, साथ रहने की कोशिश करे, या फिर अपने अपने परिवार वालों के बीच अपनी समस्याओं को रखे ! और अगर तब भी बात ना बने तो तलाक लिया जा सकता है। लेकिन आजकल तो तीन तलाक का फैशन होगया है , नशे में , गुस्से में , किसी भी बात पर तीन तलाक बोलने में पुरुष समय नही लगता और इस पवित्र रिश्ते को तोड़ देता है , जिसका उनको जरा भी अफसोस नही होता।
यह तरीका तलाक का बहुत ही अनैतिक और गलत है। सबसे बड़ी बात एक महिला लड़े भी तो किस्से लड़े अपने पति से परिवार से या फिर समाज से ! अगर एक महिला आवाज उठती भी है तो कोई भी पुरुष उसका साथ नही देता। पुरुष प्रधान समाज केवल पुरुष की ही बातों को सुनता है।
यदि ऐसा है तो एक महिला अपनी आपबीती के साथ किसका दरवाजा खटखटाएगी और क़िस्से मदद की उम्मीद रखे! समाज से, इन धर्म गुरुओं से , कानून से या फिर एक महिला को ही अपनी आवाज बुलंद करनी पड़ेंगी। देखते है समाज मे वो दिन कब आता है जब महिलाओं को अपने महिला होने पर गर्व होगा।
यह एक सवाल बन कर रह गया है - इसका जवाब कौन देगा ? समाज के ठेकेदार, कानून, इस्लामी गुरु या फिर खुद एक महिला ??
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